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________________ 134 * रस्यते इति रस:" इस व्युत्पत्ति ते आस्वाद्यमान होने से वही स्थायिभाव रस कहलाता है । ' उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाट्यदर्पणकार रस को सुख-दुःख : रूप उभयात्मक मानते हैं। अतः यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वे सम्पूर्ण नौ रसों को सुख-दुःखात्मक मानते हैं? अथवा कुछ रसों को सुखात्मक मानते हैं तथा कुछ को दुःखात्मक। इसी को स्पष्ट करते वै लिखते हैं कि इष्ट विभावादि के द्वारा स्वरूप सम्पत्ति को प्रकाशित करने वाले श्रृंगार, हास्य वीर, अद्भुत तथा शान्त ये पाँच सुखात्मक रस हैं तथा अनिष्ट विभावादि के द्वारा स्वरूप लाभ करने वाले करूण, रौद्र वीभत्स तथा भयानक ये चार दुःखात्मक रस हैं। 2 उनका कथन है कि कुछ आचार्यों के द्वारा जो सब रसों को सुखात्मक बतलाया गया है व प्रतीति के विपरीत है। क्योंकि वास्तविक करूषादि विभावों की तो बात ही जाने दो, उससे तो दुःख होगा ही, किन्तु काव्य नाटक आदि मैं नटों के द्वारा अवास्तविक रूप में प्रदर्शित अभिनय में प्राप्त विभावादि से उत्पन्न भयानक, वीभत्स, करूप अथवा रौद्र रस का आस्वादन करने वाला व्यक्ति अवर्षनीय कष्ट का अनुभव करता है। अतएव भयानकादि दृश्यों से सामाजिक उद्विग्न हो जाते हैं। यदि सब रस सुखात्मक ही होते तो सुखास्वाद से किसी को उद्वेग नहीं होता है, इसलिए करूपादि रस दुःखात्मक ही होते हैं। और.. 1. हिन्दी नाट्यदर्पण, 3/7 वृत्ति । 2. इष्ट विभावादिग्रथितस्वरूपसम्पत्तय: श्रृंगार- हास्य-वीर अद्भुत शान्ताः सुखात्मानः। अपरे पुनरनिष्ट विभावाद्युपनीतात्मानः करूप-रौद्र-वीभत्स - भयानकाश्चत्वारो दुःखात्मानः । हिन्दी नाट्यदर्पण, पू, 290
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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