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________________ Dhanasansar.18.1 1.BaatayaMDIBASIBIOSIMUBIDIOBUDIISISSUBASu चाहार-माधु परिया। [ १ इनसे अभी सोनेका फूल निकल' आता है। प्रकाश और अंधकार ! पुण्य और पाप ! दोनोंका नंगा नाच वहा होरहा था ! उन माधुका नाम मेतार्य था। अपने एक पूर्व मवये ग्रह लावस्ती नगरीमें यज्ञदत्त नामक ब्राह्मण थे। कदाचित उन्हें सासा. रिक वैभवमे वृशा होगई । धनसम्पदामे मो : छूट गया । उन्होंने आईनी दीक्षा ग्रहण कर ली। वह माधु होगये. तप तपने लगे, कितु एक बातका त्याग वह न कर सके। कुलमदका नशा उनके पुनीत भेषमें चंद्रमाके कलंकके समान दिखता था। जन्मक वह ब्राह्मणः भल कमे अपने कुलकी मर्यादाका ध्यान छोड़ दें ! किंतु उन्होंने यह न जाना कि अती दीक्षा समभाव ही प्रधान तत्व है । एक अर्हत् भक्त यह निय जानता है कि उसका आत्मा वर्ण और कुल रहित एक विशुद्ध द्र-य है। ससारमें भटकता हुआकर्मकी विडम्बनामें पड़ा हुआ वह नाना प्रकारके शरीर धारणा करता है । आज जो ब्राह्मणके शरीरमे है कल वही महतरके शरीमें दिम्वाई पडेगा; और फिर महतर ही क्यों ? यदि वह दुष्कर्म करने पर ही उतारू है तो पशु और नर्क गतियों के दारुण दुःख. भोगनेको उनमें जा जन्मेगा अब भला कोई कुल या जातिका घमड क्या करे ? कितु यज्ञदत्त इस सत्यको न समझ सका । वह कुलमदमें मम्त हुआ, मरा और ही। जातिका देव हुआ। तथा देव आयुको पूरी करके इसी भारतमें उमे एक हरिजन ( अछूत शूद) के नीच कुलमें जन्म लेना पड़ा। किया हुमा कर्म अपना फर
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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