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________________ चोण्डा- साधु ७१ engisnanong unentheti meg á Al Al 6 । धर्मानुयायी थे। उन्होंने सोचा कि भगवानकी देन है ' हैं। आओ दानपुण्यमें कुछ खर्च करें । चचल लक्ष्मीको लगाकर यश और पुण्य दोनों प्राप्त करें । इष्टमित्रोंसे सलाह करके उन्होंने एक महायज्ञ रचना बिचारा और तदनुसार उन्होंने सब प्रबन्ध किया | लोगोंने चारोंओर धूम मचा दी कि राजकुमारी महांने बड़ा भारी यज्ञ माड़ा है। बड़ी२ दूरसे सैकड़ों ब्राह्मणगण आये हुये यज्ञ सम्पन्न कर रहे हैं । * हरिकेश | खूब भरें पूरे कृतमे सचमुच एक बड़ेसे मण्डपमें सैकड़ों ब्राह्मण पडित बैठे हुबे अग्निहोत्र पढ़ रहे थे । धूम्रमय अमिकी ज्वला बलिवेदी मे उठकर आकाशसे बातें कर रही थी। मास लोलुपी जीव उसको देखकर मैंके ही प्रसन्न होते हों, परन्तु उसमें जीवित होमे जानेवाले पशुगण उसको देखकर थर थर काप रहे थे । वे बेचारे पशु थे तो क्या ? उनके भी प्राण थे और प्राणोंसे प्रेम होना स्वाभाविक ही है। किन्तु इस बासको देखनेवाला वहा कोई नहीं था। I बहाकी एक खास बात और थी। लोगोंको हिदायत थी कि शूद्र चाण्डाल आदि कोई भी नीच समझे जानेवाले लोग यज्ञ के पासेसे म मिलने पावें । वेदश्रुतिकी ध्वनि उनके कानोंमें न पढ़ने पावे । कैसी विडम्बना थी वह । वह धर्मकी ध्वनि थी तो उसे प्रत्येक मनु म क्यों न सुने ' शूद्र चाण्डालादि यदि अपनी हिंसक आजीविकाके कारण अछूत थे तो पशु होमकर मान लेना क्या वैसा ही निव कर्म न था ? चाण्डाल महात्मा हरिकेश वहीं पास में तप तप रहे थे क
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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