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________________ हो शन्द। गीचो वि होइ चो, उचो णीचचणं पुण ब्रह। जीवाणं खुकुलाई, पवियस्स व विस्समंताणं ॥३॥ ___ारामनासार। मायाम श्री विष्ट राजका महादेश हम लोगोंके लिये उपाय है कि अगसमें नीच है जानेवाले लोग उच्च भी होते हैं और उच्च होकर नीच भी होजाते हैं। इसलिये जाति और कुलको अधिक महत्व देना तय है-यह तो मात्र पत्रिके लिये विश्रामगृहके समान है। जैसे पथिक एक विश्राम-स्कयको त्यागकर दूसरेमें और फिर उसे लाकर तीसरेमें जा ठहरता है वैसे ही जीव नीच-उँच कुलोंमें परिश्रमम-करता है। इसका अभिमान करना व्यर्थ ही नहीं हानिकर है। किन्तु खेद है कि माधुनिक लोग इस सत्यको भूलगये हैं। जाति और कुलका घमण्ड बड़ा अनर्थ कर रहा है। जैनसाहित्य महारथी श्री० ० जुगलकिशोरजी मुल्तार (सरसावा ) को यह अनर्थ अखरा। उन्होंने चाहा कि एक ऐसा अन्य प्रगट किया नाय जोबन धर्मके अतितोद्धारक स्वरूपको प्रकाशित करे । इसके लिये अहीने पुरस्कार भी रक्खा, किन्तु खेद है कि इस विषयपर इस मेरी रचनाके अतिरिक्त और कोई रचना न रची गईहर्ष है कि श्री० सेठ मूलचन्द किसनदासजीकापडिया सूरतने इसे खात्र ही प्रगट कर दिया है, इस कृपा के लिये में आभारी हूं। जनता इससे सत्यके दर्शन करके अपना भात्मकल्याण करे, यही भावना है। इति शुभं भूयात् । अलीगंज (एटा) । विनीतसा. ११-१-१९३६ । कामतामसाद जैन ।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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