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________________ १६४ ] SHIRISpin तरह तरहके जादू भरे करतब दिखाकर लोगोंको आश्चर्यमें डाल रहा था। जिस समय श्रीगुप्त वहां पहुंचा उससमय वह कह रहा था कि भाइयो! देखो, यह युवक तुम्हारे सम्मुख है ! खूब मजबूती से पकड़ लो! यह देखो गायब न होजाय ! " .6 इसे पतितजारक जैनधर्म इसके साथ ही मंत्रवादीने युवक के मुँहपर हाथ घुमाया। हाथ घुमानेमें अदृश्यकारिणीवटिका उसके मुँह में उसने घुसेड़ दी ! युवा लोगोंकी ननरोंसे ओझल होगया। लोग आश्चर्यमें पड़ गये । इतने में श्रीगुप्त भीड़को चीरता हुआ गोलके भीतर जा खड़ा हुआ और बोला- ' भाइयो ! इसने युवाको अदृश्य किया है। मैं इसको महश्य 11 · करता हूं ! देखिये मेरी करामात । ' लोग आँखें फाड़कर उसकी ओर देखने लगे- दूसरे क्षण चिल्ला उठे - अरे यह क्या करने हो ? बेचारेको क्यों मारते हो !" कोषमें भमकते हुए श्रीगुप्तने कहा- यह दुष्ट है, इसने मेरा जीवन नष्ट किया है- मैं इसका जीवन नष्ट करता हूं ।' और इसके साथ ही उसने मंत्रवादीको मार डाला ! वह मंत्रवादी श्रीगुप्तका शत्रु कुशलिन था । 6 खून होगया ' के भयंकर समाचार गजपुरके कोने २ में पहुंच गये। राजकर्मचारियोंने श्रीगुप्तको गिरफ्तार किया । न्यायालय में उसने अपना अपराध स्वीकार किया। श्रीगुप्तको फांसीकी सजा मिली !" ( ५ ) चरररर ' करके पेड़की वह डाक टूट गई, जिससे लटकाकर श्री गुप्तको फांसी दीगई थी। श्रीगुप्तके प्राण बच गये । संसारमें अब उसे "अपना कोई नहीं दिखता था। वह एक ओर बनमें घुसकर चैल "
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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