SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ MAINABHABISistarinis18IMIRussianouseushar. ..DULIHOODiamonalisaniin. पतितोबारक जैनधर्म। नामक पुत्र हुआ ! मुनि होकर प्रद्युम्नने मोक्षपद पाया, और आज व्यभिचारी मधुका जीव सिद्ध भगवानके रूपमें त्रिलोकपूज्य होरहा है! धर्मका माहात्म्य अचिन्त्य है ! महान रोगी ज्यों अमृतौषधिको पाकर स्वस्थ्य होजाता है त्योंही महान पापी धर्म निर्मलीको पाकर अपनेको पापमलसे निर्मल कर लेता है। मधुकी तरह चंद्राभा भी सद्गतिको प्राप्त हुई ! धन्य है वे ! [४] श्रीगुप्त । 'तुम चोर हो।" कौन मुझे चोर कहता है वह सामने आये। 'मैं कहता हूं। मैं वैजयन्तीका राजा नल जिसन तेरे अपरा घोंको कई वार क्षमा किया है।' 'धन्यवाद है. राजन ! अ.पी उदारताके लिये परन्तु इसका अहसान मुझपर नहीं मेरे पिता और आपके मित्र महीधरपर होगा, सचमुच मैंने कभी कोई अपराध किया ही नहीं .' ‘कृतनी ! दुष्ट '! पिता के पवित्र नामको कलंकित करता है। तू पितृमोहका अनुचित लाभ उठाना चाहता है। अच्छा. दे अपने निर्दोष होने का प्रमाण " 'जलती हुई अमिमें से निकलकर मै अपनी निर्दोषताका प्रमाण x श्वेताम्बराचार्य भवदेवसरिके 'पाश्वपरित्' के आधारसे।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy