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पवितोद्धारक जैनधर्म |
midiasisanga
शुक० - 'पापसे ग्लानि होना ही हृदयशुद्धिकी पहिचान है, तुम पापसे भयभीत हो ! अब तुम निशक होकर संयमकी आराधना करो। पहले संवेग और कायोत्सर्गका अनुसरण करो, तुम्हारा कल्याण होगा । सवेरेका भूला शामको रास्ते लग जाय तो उसे भूला नहीं कहते । तुम मार्गभ्रष्ट नहीं हुये हो, अपना आत्मकल्याण करो !”
गुरुसे प्रायश्वित लेकर शैलक धर्ममार्गमें पहलेकी तरह फिर पर्यटन करने लगे। उनसे पाँचसौ शिल्प फिर उनकी शरण में आगए। खोई हुई प्रतिष्ठा पूज्यता उन्हें फिर प्राप्त होगई। सच है, गुणोंसे मनुष्य पूज्य बनता है और अवगुणोंसे वह लोकनिन्ध होता है । धमकी शरण ही त्राणदाता है। मार्गभ्रष्ट लोगोंको मार्ग सुझाना, उन्हें उनके पूर्वपद पर बिठाना महान धर्मका कार्य है ! स्थितिकरण धर्म मही तो है। पंथकने इस धर्मको निभाया और अपने भूले हुए गुरुको फिर वह धर्म मार्गपर ले आया ! गुरुसे उसने घृणा नहीं की, यद्यपि उनकी इन्द्रियाशक्तिसे उसे तीव्र घृणा थी ! पापीसे नहीं, पापसे ही घृणा होना चाहिये । सम्यक्त्वी तो पापी और धर्मात्मा सब ही पर अनुकम्पा रखता है !
शैकक अब पूर्ववत् धर्माचार्य थे। पुण्डरीकपर्वत पर रहकर उन्होंने अपना शेष जीवन धर्माराधनामें व्यतीत किया। अंतर्फे समाधिमरण द्वारा वह सद्गतिको प्राप्त हुए ।