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________________ - ] पतितो धर्म । musicarcaramaianisianananda-S मंडूककी विनय स्वीकार की । कुशल चिकित्सक उनकी चिकित्सा करने लगे । औषधियोंमें मद्य भी था। मोहग्रस्त शैलक उसे भी पी गये। धीरे धीरे वह खूब हम्रपुष्ट होगए । शैलक के प्राचसौ शिष्य बिचारे परेशान थे । वे सोचते थे- अब गुरु महाराज विहार करते हैं; किन्तु गुरुके डाढ़ तो मद्य लग गया था। वह उसे कैसे छोड़ें? आखिर शिष्यगण ही उन्हें छोड़कर चले गये, रह गया एकमात्र पंथक वह गुरूके इस भ्रष्टाचार में भी उनका साथी रहा " चातुर्मासिक प्रतिक्रमण - गुरुके निकट अपने अपराधोंको स्वीकार करके क्षमायाचना करनेका अवसर आया। पंथकने गुरुके चरणोंमें शीश नमाया । पादप्रहार करते हुये शैलकने क्रोधपूर्वक कहाकौन न दुष्ट है जो मुझे सोतेसे जगाता है ? " "I सचमुच पंथक सोते से जगाने के लिये पाप पंकसे शैलकको बाहर निकालने के लिए उसके पास रह गया था । उसने विनम्रस्वर में उत्तर दिया- "प्रभो ! और कोई नहीं, आपका शिष्य पंथक है । चातुर्मासिक प्रतिक्रमणकी क्षमायाचना करने आया हूं । मेरे इस कार्यसे आपको कष्ट हुआ है तो क्षमा कीजिये ।" शैलक इन बचनोंको सुनने ही उठकर बैठ गया, उसका आत्मभाव जागृत होगया । वह सोचने लगा कि " देखो तो विषयवासनाबोका स्याग करके फिर मैं उनमें फंसा हूं, यह मेरा घोर पतन मदिरा पीकर मस्त होना और मौज उड़ाना मैंने जीवनका उद्देश्य कैसे समझ किया ? छि: धिक्कार है मुझको ! वह मेरा उग्र तप और I
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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