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________________ चिलाती पुत्र | meenadu | १४१ किया, मोइका परदा फट गया, उपशमभाव जागृत हुआ । चिलातीपुत्रने तलवारको देखा और कहा- कोषकी निमित्तभूत इस तलवारका क्या काम ? फेंको इसे ।" तलवार उसके हाथ से छूट पड़ी। फिर भी वह उन तीन शब्दोंकी जाप जपता रहा । जाप जपने हुए उसने विचारा - मुनिमहाराजने इन्हींको तो धर्म बताया था, तो यही धर्म है ? पर संबर क्या ? कुछ भी हो; मैं मेठ और कोतवालपर क्रोध क्यों करूं? दूर फेंक दूं इस तलवारको ' और इसके साथ ही तलवारको उसने एक गारमें फेंक दिया। उसका चित्त अपूर्व शांतिका अनुभव करने लगा। अब उसने सोचा- 'यही धर्म है, यही संवर है, मेरा चोला इसीसे चैनमें है। मै आराधूंगा मुनिराजके धर्मको ।' चिलातीपुत्र अपने निश्चयमें दृढ़ रहा ! हत्यारे और चोर दासपुत्रकी धर्मके तीन शब्दोंने काया पलट दी। उन शब्दोंसे उसकी बुद्धि और हृदयको शान्ति मिली-भीतरकी आकुलता मिटी । हाथ कङ्गनको आरसी क्या ? चिकातीपुत्रने धर्मका यथार्थरूप पहचान लिया। वह शान्तचित्तसे विवेक, उपशम और ध्यानमें लीन रहा । उसे यह भान भी नहीं हुआ कि उसके खून से सने हुये शरीरमें चीटियां लग रहीं है- जानवर उसे स्वारहे हैं । उन धर्ममय परिणामोंसे उसने शरीर छोड़ा और वह स्वर्गलोक मेंदेव हुआ ! हत्यारा अपने पापका प्रायश्चित्त कर चुका, उसका अंतर पशु मर गया- संसार उसका क्षीण हुआ । आत्मारामका जाज्वल्यमई प्रकाश उसके मुखमंडलपर नाच रहा था । व्यय उसे कौन हत्यारा कहे ? धर्मने उसकी काया पलट दी । ऋषियोंने कहाकि देवगतिके.
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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