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महात्मा कर्ण
[१२९ पत्नीने पतिको प्यारेका धक्का लगाते हुये कहा- चलो रहने दो ठठोली, खोलो भी इसे ।'
मल्लाहने देखा, मंजुषाके एक कोरमें चावी लटक रही है। चाबी लेकर उसने उसे खोला। पहले एक पत्र मिला; फिर बहुमूल्य रेशमी डुपट्टेमें लिपटा हुआ एक नवजात शिशु ! बालकका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके सदृश विकसित होरहा था। मल्लाह और उसकी पत्नी इस अपूर्व निधिको देखकर अचंभेमें पड़ गये। पत्रको उठाकर देखा । उसपर राजमुद्रा लगी हुई थी। वे घबड़ा गये, इस मंजूषाके कारण उनपर कोई आपत्ति न आए। यह सोचकर मल्लाहने उस रत्नमंजुषाको राजदरवारमें पहुंचा देना निश्चित किया।
उस समय राजगृहमें जरासिधु नामका राजा राज्य करता था। उस भाग्यशाली बालकको देखकर वह फूले अंग न समाया। राजमुदा और सौम्य मूर्तिसे उसने बालकको एक राजपुत्र समझा और उसे पालनपोषण करनेके लिये धायको देदिया ! जब वह जरा बड़ा हुआ तो लोग उसे कर्ण कहकर पुकारने लगे। कर्ण एक होनहार बालक निकला । जरासिधु उसपर बहुत प्यार करता था।
कुरुक्षेत्रके रणागनमें दोनों सेनायें आमने-सामने डटी हुई थीं। एक ओर महाराज जरासिधुकी चतुरगिणी सेना थी। दूसरी ओर श्रीकृष्ण और अन्य यादवगण तथा उनके सम्बंधी पांडवोंकी सेना थी। घमासान युद्ध होनेको था, दोनों ओर बड़े बड़े योद्धा थे।
पाण्डवोंके शिविरमें राज-रानियां भी साथमें थी। कुन्ती उनमें