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________________ १२६ ] पतितोद्धारक जैनधर्म | Scienceccanninadindanima है। और कोई है भी तो नहीं इसके साथ ।” पाण्डु दबे पाव कुन्तीके पीछे जा खड़े हुये । कुन्तीकी आँखोंको उनके हाथने ढक लिया । कुन्ती अचकचाकर सिहर उठी । साहससे हाथोंको टटोला 1 जरा संभलकर बोली- 'यह ठठोली अच्छी नहीं लगती। कोई देख लेखा !" पाण्डु - 'देख लेगा तो क्या होगा। क्या तुम मुझे प्रेम नहीं करतीं ' कुन्ती - प्रेम ! पर जानने हो लोग कहते है कुँवारी कन्याको परपुरुषमे बात नहीं करना चाहिये ।' पा० - 'लोग कहते है, कहने दो। तुम्हारे लिये तो मै परपुरुष नहीं हूं ।' यह कहकर पाण्डुने कुन्तीको अपने दृढ़ बाहुपाशुमें वेति कर लिया । कुन्तीके अरों पर पाण्डुका मुख था और उनके पग धीरे धीरे मालती- कुञ्जकी ओर उन्हें लिये जारहे थे । जब वे कुञ्जके बाहर निकले तब उनके मुखोंपर केलिश्रम छारहा था । पाण्डुको अपनी प्रेयसी आज अंतिम विदा लेनी थी । कुन्ती पाण्डु के विशाल वक्षस्थल में मुंह छिपाये थी। दिलमें न जाने उसे अदेखा डर डरा रहा था । पाण्डुको उसने जोरसे थाँभ रक्खा था। पाण्डुने अपना सिर झुका दिया और वह बड़े प्यारसे कुन्तीको सान्त्वना देने लगा | उसने कुन्ती वायदा किया कि वह हस्तिना यपुर पहुचते ही उसे बुला भेजेगा । वह कुरुवंशकी राजधानी होगी। कुन्तीके चित्तको प्रसन्न करनेके लिये पाण्डुके यह शब्द काफी थे;
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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