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________________ · [pos धर्मात्मा शुद्रा कन्यायें । प्रत्येक प्राणीका उपकार करना न भूलो ! दुसरेका भला करोगी तुम्हारा भला होगा ।' शूदा० -' नाथ ! हम यह भी करेंगी ! किंतु नाथ, हम रोगमुक्त कैसे हों ? दवाइयां बहुत खाईं पर उनसे कुछ नफा न हुआ ।' निर्ग्र० - पुत्रियो, संसार में साता और असाता प्रत्येक प्राणके पूर्वोपार्जित कर्मका परिणाम है। यदि तुम दूसरोंको बहुत कष्ट दोगी, किसीको रोगी- शोकी देखकर उसका तिरस्कार करोगी तो तुम भी दुखी और तिरस्कृत होओगी । जैसा बीज बोओगी वैसा फल मिलेगा । बस, रोग-शोक से छूटना चाहती हो तो दीन-दुःखी जीवोंकी सेवा करो और व्रत पूर्वक जिनेन्द्र भगवानकी पूजा करो, तुम्हारा रोग दूर होगा । C शूद्रा० - नाथ ! जीवोंकी सेवा और व्रत उपवास तो हम कर लेंगी; परन्तु भगवत्पूजन हम कैसे करें ? हमसी दीन दरिद्रियोंको मंदिर में कौन घुसने देगा ?' निर्म० - जैनी निर्विचिकित्सा धर्मको पालते हैं। वे जानते हैं कि यह काया स्वभावसे ही अशुचि और मलिन है। कायाके कारण किसीकी भी घृणा नहीं करना चाहिये । कायाका सौन्दर्य धर्म धारण करनेसे होता है। तुम जैन मंदिरमें जाओ और भगवानकी पूजा करो, तुम्हारा कल्याण होगा ।' Sin निर्मन्थाचार्यकी आज्ञा शिरोधार्य करके उन शूद्रा कन्यायने उनके चरणोंमें मस्तक नमा दिया । उनका रोम-रोम कृतज्ञताज्ञापन करता हुआ कह रहा था कि ' प्रभु ! तुम पतितपावन हो ।'
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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