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________________ m aanaamannamruRIma..1000wo BOUNainsiste..anatananam माली सोमदत और अंजननोर करके हम गुणग्राहकता और कृज भाव का महत्व प्रगट करते हैं। तुमने भी आज यही किया है । भाई ! अपने परिणामोंको और भी उज्ज्वल बनानेका प्रयत्न करी । यह शरी। नाशवान् है। दुनियां की सम्पत्ति क्षणिक है-स्त्री पुत्र भ.दि सरन्धी मतलबके साथी है । उनमें क्या पगे हो ? हृदय के संकोचको दूर कर दो-सारे विश्वको अपना कुटुम्ब बना लो और निर्द्वन्द होकर आत्म-शौर्य प्रकट करनेमें लग जाओ। क्या कहते हो, अंजन ! हे हिम्मत ? अभी तक चोर रहे ? अब चोरको दण्ड देने का उद्यम करो : " ___अंजन मुनिराजके पैरों में पडकर बो- " प्रभू ' आप सत्य कहते है । आशीष दीजिये कि मैं अपना आत्मशौर्य प्रकट करने में मफल प्रयाम होऊँ।" गुरुने अपनी शान्तिमय छायामें अंनको ले लिया। उस अंजनको जो कल तक चोर था, f में लोग वृणाकी दृष्टि से देखते थे और राज कर्मचारी जिसको पकडसर शूली चढाने की फिराक में रहते ' उस दीन हीन पापी अंजनको निर्य थ गुरुने जगत-पूज्य बना दिया। अंजनने आत्मशौर्य प्रकट करने के लिये हाथोंमे आने बाल उपाड कर फेंक दिया, वस्त्रों क वनको उतार फेंका। प्रकृत भेषमें निर्द्वन्द हो वह तर तरने लगे। स्टजी और माली उन्ह · धन्य - धन्य ' कहने लगे और शक्ति के अनुमा व्रत लेकर वापिपघा अथे। थोडे समय बाद उन्होंने सुना कि अंजन संपार-मुक्त होगये - वह सिद्ध परमात्मा हुये है। भक्तिम उन्होंने मस्तक नमा दिया और भगवान का पूजन किया।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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