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________________ (८) यदि कोई जानबूजकर पानी और साबुनके भरोसे अपने वस्रोको कीचड़में सान ले तो यह उसकी मूर्खता होगी। इसलिये सर्वदा अपनी आत्माको पापसे बचाते हुये अन्य पापी, दीन, पतित मानवोंके उद्धारमें अपनी शक्ति लगाना चाहिये, यही विवेकियोंका कर्तव्य है। आशा है कि समाज संकीर्णता और भीरुताको छोड़कर जैनधर्मकी पनितोद्धारकताका उपयोग करेगी और विद्वान लेखककी इस अपूर्व कृतिका अच्छा प्रचार करेगी। इस ग्रन्थका सुलभ प्रचार हो इसलिये इसे 'दिगंबर जैन ' के ग्राहकोंको भेटस्वरूप वितरण करनेका हमने प्रबंध किया है तथा जो 'दिगंबर जैन' के ग्राहक नहीं हैं उनके लिये अमुक प्रतियां विक्रयार्थ भी निकाली गई हैं। अंतमें हम इस ग्रन्थ के विद्वान लेखक बा० कामताप्रसादजीका ऐसी उत्तम उद्धारक रचनाके लिये आभार मानते हुए उन विद्वानोंका भी आभार मानते हे जिनकी पुस्तकोंके आधारपर इस ग्रंथकी रचना हुई है। मुरत-वीर सं० २४६२ । मूलचंद किसनदास कापडिया, ज्येष्ठमुदी १५ ता०५-६-३६।। -प्रकाशक।
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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