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________________ upiraimmun. ....DUDHunt Dianarmy-anainamanarthairmananelaram MINon शामाल-साधु हरिका [८३. त्रिकालदर्शी भगवान् महावीरसे उसने अपनी शंका निवेदन की । भगवानने मेतार्यको उसके सब ही पूर्वभव सुना दिये। उनको सुनकर मेतार्यका हृदय चोटल हुआ, संसारसे घृणा होगई, उसे जातिस्मरण हो आया और अपने पूर्वमवके कुलमदपर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। वह विचारने लगा कि 'नाहं नारकी नाम, न तिर्यक् नापि मानुषः। न देवः किन्तु सिदात्मा सर्वोऽयं कर्मविभ्रमः ।। "मैं नारकी नहीं हूं. तिर्यच नहीं हूं. मनुष्य नहीं हूं और नहीं ही देव इ, क्योंकि ये सब तो कर्मपुद्गल के विभ्रम हैं ! मोहमें पडा हुआ मैं अपनेको मनुष्य और ब्राह्मण समझनेके भ्रममें पड़ा था। वस्तुतः निश्चयरूपमें मैं सिद्धात्माके समान हूं।" ___इस प्रकार वैराग्यचित्त होकर मेतार्यने अपने पिता धनदत्तमे आज्ञा ली और वह साधु होगया। अब वह साधु मेतार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। सुनारने इन्हीं साधुपर महान उपसर्ग किया। नीचकुममें जन्म लेने पर मी अपने पूर्वसंचित चारित्रजनित दृढ़ताके प्रभावसे यह अच्छे तपावी हुये । कुलमद अब उन्हें छू भी नहीं गया था। सुनार बैठा इन्तजार ही करता रहा कि सब साधु कबलें और फूल मिले, परन्तु उवर लीली टोपी इसनी संकुचित हुई कि उमने साधु मेतार्यके मायेके दो टूक कर दिये । मायके दो टक हुये, मी. रकी स्थिति क्षीण हीन होगई; परन्तु मेतार्यका आमगौर्य पूर्व और निश्चल था। वह सद्गतिको प्राप्त हुये ! धन्य ये साधु मेतार्य !
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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