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पार्श्वनाथ
पड़ता है उससे पिंड छूटेगा और संभव है आगे के लिए भी कुछ सामान इकट्ठा हो जाय।' इस प्रकार विचार कर अपने जन्म संस्कारो के कारण बन मे जाकर उसने किसी तापस से तापसी दीक्षा ग्रहण करली । वह उसी मे आत्मा का कल्याण समझता हुआ पंचाग्नि तप तपने लगा ।
भारतवर्ष मे उस समय भी गंगानदी के किनारे वाराणसीजिसे आजकल बनारस कहते हैं, नगरी थी । उस समय वाराएसी नगरी की शोभा अद्भुत थी, उसकी छटा अनुपम थी । प्रकृति ने मानो उसे बड़े चाव से, बड़े हावभाव से सजाया -- सिंगारा था । सुन्दर सरोवरो मे खिले हुए कमल, नगरी के सौदर्य मे चार चाद लगा रहे थे । अत्यन्त उन्नत और विशाल प्रासाद सुमेरु से स्पर्धा कर रहे थे । नगरी के निवासी न्यायनिष्ठ, सदाचारी और धार्मिक थे । वन-धान्य से परिपूर्ण और वैभव से मंडित वह नगरी जम्बूद्वीप का आभूषण थी।
इस नगरी मे संसार प्रसिद्ध इच्वाकुवंश के प्रतापी और पराक्रमी राजा अश्वसेन का शासन था । राजा अश्वसेन बड़े ही दानशूर थे । उनकी दानशूरता चारो ओर प्रसिद्ध हो चुकी थी और इस कारण सर्वत्र उनके यशश्चन्द्र की रोचिर रश्मिया व्याप्त थीं । राजा राजनीति मे पारगत थे। उसकी वीरता की कथा सुन कर बड़े-बड़े शूरवीर पीपल के पत्ते की तरह कांपते थे । राजा अश्वसेन दयालु होने पर भी अन्यायियों, अत्याचारियो और आतताइयों को कठोर दंड देने मे कभी हिचकते न थे । वे राजा पत्र की मर्यादा को भली भांति जानते और निवाहते थे ।
महाराज अश्वसेन की पट्टरानी का नाम 'बामादेवी था । वासादेवी आदर्श महिला के समस्त गुणों से युक्त, पतिव्रता,