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पार्श्वनाथ से तथा सिा, झूठ, चोरी व्यभिचार, मांस-मदिरा सेवन, ईर्षा, ममत्व आदि के त्याग से धर्म की प्रभावना होती है।
धर्म की महिमा का विस्तार करने मे सोत्साह न होना, अपने तन-मन-धन संबंधी शक्तियों को छिपाना, धर्माचरण मे अनुरक्त न रहना, धर्म को ढोंग समझना, धर्म मार्ग मे चलते समय विघ्न बाधा के गाने पर तुरंत धर्म से किनारा काट लेना, इत्यादि कार्यों से अप्रभावना होती है और अप्रभावना सम्यक्त्व का कलंक है।
विजयपुर की महारानी ने, अपने धर्म की सर्वोत्कृष्टता लोक मे प्रकट करके धर्म की महान् प्रभावना की थी। उसका संक्षिप्त वर्णन इस भाति है
विजयपुर के राज्य की वागडोर, विभूतिविजय नामक राजा के हाथ मे थी। उसकी पटरानी का शुभ नाम गुणसुन्दरी था। पति और पत्नी-दोनों के बीच धर्म के स्वरूप के संवध मे परस्पर वाद-विवाद प्राय. हुआ ही करता था। रानी वीतराग-धर्म की अनुगामिनी थी और राजा किसी मिथ्यामार्ग का अनुयायी था। वीरे-धीरे एक दिन बादविवाद की उग्रता ने ऐसा रूप धारण कर लिया, कि दोनों मे कटुता और डाह उत्पन्न हो गई। राजा मौके वेमौके महारानी के धर्म पर मिथ्या आक्षेप करके उसकी निन्दा करने लगा। वह कभी-कभी कहता-'चल देख लिया तेरे धर्म को मामायिक का बहाना करके कुछ-कुछ गनगनाती रहती है । अवसर आने दे तब तेरे धर्म की सचाई भी परख लेगा।'
एक दिन गना ने अपनी कर प्रकृति के वश होकर एक पिटारे में काला विपवर भुजग बंद करके. रानी के हाथ मे सौंप