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पार्श्वनाथ
तीन ज्वाला धधक उठी। उसने मुनिराज को लक्ष्य बनाकर एक तीखासा तीर छोड़ा और मुनिराज के शरीर का अंत हो गया ।
पाठकों को विदित होगा कि यह भील कमठ का ही जीव है जिसने पहले अपने लघु भ्राता मरुभति के प्राणों का संहार किया था और मुनि मरुभूति के जीव है। जब मुनि के शरीर मे भील का छोडा हुआ पैना तीर लगा तब भी मुनिराज को उस पर द्वष न हुआ। उन्होंने सोचा-"किसी भव मे 'मैने इसका अनिष्ट किया होगा। वह ऋण मेरे ऊपर चढ़ा था । आज वह पट गया यह अच्छा ही हुआ है। जितना बोझा कम हुआ वही गनीमत है। जो व्यक्ति किभी को ऋण देता है वह कभी न कभी लेने के लिए आता ही है । उस पर क्रोध करना या रो-रो कर ऋण चुकाना बुद्धिमत्ता नही है। ऐसा करना कायरों का काम है । फिर इसने मेरा बिगाड़ा ही क्या है ? मैं तो अजर-अमर अविनाशी हू । सच्चिदानन्द रूप हूँ । मेरा-मेरी आत्मा का कभी विनाश नहीं हो सकता। यदि कभी तीनो लोक उलट जाएँ, मेरु पर्वत भी चरर हो जाय, पथ्वी पिघल कर पानी बन जाय, तो भी आत्मा मर नहीं सकता। करोडॉ इन्द्र आकर के भी आत्मा का विनाश नहीं कर सकते । बेचारा कर्मों का मारा हुआ यह भील मेरा क्या विगाड़ सकता है। इसके प्रयत्न से भले ही मै इस शरीर को त्याग दूंगा पर शरीरों की क्या कमी है ? अनादि काल से शरीर मिलते ही रहते है और फिर भी मिल जायगा । जीव जहां जाता है वहीं शरीर पाता है। इस जर्जरित देह का वियोग होने पर नया देह मिलेगा। इसमे मेरा क्या विगड़ता है ? बल्कि मै तो स्वयं अशरीर बनने के लिए साधना कर रहा हूं। जब सब शरीरों का अन्त हो जायगा तो मै धन्य और कृतकृत्य हो जाऊंगा सैकड़ों