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पार्श्वनाथ
उसने अनुभव किया - जैसे मेरी यह प्रवल वलवती सृड अचेतन-सी हो गई है, मरे हुए सांप के समान निर्बल हो गई है । मुनिराज का ध्यान जब समाप्त हुआ तो उन्होने गजराज पर एक स्नेह भरी अमृत-दृष्टि डाल कर कहा - 'अहो गजराज, अपने जीवन को यो बर्बाद कर रहे हो ? अपने पूर्व-भव की घटना का तो स्मरण करो । जब तुम्हारे भाई क्सठ ने तुम्हारे मस्तक पर शिला का प्रहार किया था, तब तुम्हारे परिणाम यदि उच्च श्रेणी के रहे होते तो इस तिर्यञ्च गति मे क्यों जन्म लेना पड़ता ? मलिन विचारों के कारण ही तुम्हारी यह दशा हुई है । मगर जो गया सो गया । अव भी समय हैं, संभल जाओ । आत्महित की ओर लच्य क्रो और उसी ओर आगे बढ़ो ।
मुनिराज का कथन सुनते ही हाथी को भूली हुई सब घटना स्मरण हो आई । उसका आत्मा जातिस्मरण नामक ज्ञान के प्रकाश से जगमगा उठा । ज्ञान का उदय होते ही उसे अपने पिछले कार्यों का अत्यन्त पश्चाताप हुआ । उसने अपनी सूंड से मुनि के पावन चरणो का स्पर्श किया और अपनी श्रद्धा-भक्ति का पूर्ण परिचय दिया ।
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मुनि बोले- गजराज | यह सारा समार नाटक का रंगमंच है । सब संसारी जीव इस रंगमच पर खेल खेलने वाले नाटक के पात्र है। यह जीव कभी कोई रूप धारण करता है, कभी कोई । तुम अपने ही स्पो पर विचार करो ! पूर्व जन्म से तुम
ह्मण के रूप मे थे । श्रावक-धर्म पालन करते थे । अन्त समय तुम्हारे भाई ने तुम्हारे ऊपर शिला पटकी । उस समय थोड़ी देर के लिए तुम्हारे मन में श्रार्त ध्यान उत्पन्न हुआ उसका फल यह हुआ कि इस भव मे तुम्हे तिच होना पड़ा है ।