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पहला जन्म
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कोई क्षुधातुर प्राणी सुस्वादु भोजन सामने आने पर एकदम ग्रहण करने की इच्छा करता है उसी प्रकार मरुभूति की भी धर्म को ग्रहण करने की तीव्र अभिलाषा हुई । अलयत्ता श्रोताओं में एक प्राणी ऐसा था जिसके हृदय पर मुनिराज हरिश्चन्द्र के प्रभावशाली सदुपदेश का भी प्रभाव न पड़ा । तपे हुए तवे पर जैसे शीतल जल छिड़कने से वह तत्काल ही विलीन हो जाता है अथवा जैसे मंग सूलिया चिकना पाषाण मूसलधार वर्षा होने पर भी नहीं भींगता है उसी प्रकार उसके हृदय पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा । वह प्राणी कौन था वह था कठोर-हृदय कमठ ।
सच है प्रथम तो वीतराग भगवान् के श्रेयस्कर वचनों के श्रवण करने का सौभाग्य मिलना ही कठिन है, यदि कदाचित श्रवण करने का अवसर प्राप्त हो जाय तो उन पर प्रतीति होना और भी मुश्किल है। पूर्व जन्म में जिन्होंने प्रवल पुण्य का उपार्जन किया है वही नर-रत्न श्रद्धा रूपी चिन्तामणि प्राप्त कर सकते हैं । अतएव प्रत्येक आत्म कल्याण के इच्छुक पुरुष का कर्तव्य है कि वह अत्यन्त अनुराग के साथ वीतराग-वाणी का श्रवण करे और उस पर पूर्ण श्रद्धा रख कर तदनुसार आचरण करने का यथा शक्ति प्रयास करे । मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट सफलता का यही चिह्न है।
मुनिराज का उपदेश कमठ पर तनिक भी प्रभाव न डाल सका, यह उपदेश का नहीं किन्तु कमठ की अन्तरात्मा की प्रगाढ़ मलिनता का दोष था। किसी कवि ने ठीक कहा है
मधुना सिंश्चितो निम्यः, निम्बः किं मधुरायते । जाति स्वभाव दोषोऽयं, कटुकत्वं न मुञ्चति ॥