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प्रतिबोध समय दोनों ने णमोकार महामंत्र में ही अपना चित्त लगा दिया। इस अवस्था में मरने के कारण दोनों प्रथम देव लोक में देवदेवी के रूप में उत्पन्न हुए। दोनोंकी आयु एक पल्य की थी। वहां स्वर्गीय सुखों का संवेदन कर के आयु पूर्ण होने पर शिखरसेन का जीव विदेह क्षेत्र में चन्द्रपुरी के राजा कुशमगांङ्क के यहां पुत्र हुआ। वहां उसका नाम मीनमगांङ्क रखा गया । चन्द्रावती देवी मर कर कुशमृगांव के सामंत राजा भूषण के घर कन्या हुई। उसका नाम बसन्तसेना रखा गया। दोनों राज घराने में सुख पर्वक वाल्यकाल व्यतीत करके क्रमशः यौवन वय में आये। दोनों का परस्पर विवाह-सम्बन्ध हो गया । आर्य-सभ्यता की प्राचीन परिपाटी के अनुसार कुछ दिनों बाद राजा कुशमगांङ्कने अपना समस्त राज्यभार अपने ज्येष्ठ पुत्र मीनमगाङ्क को सौंप दिया और आप दीक्षित होकर आध्यात्मिक साम्राज्य की प्राप्ति के लिए जुट गया।
समस्त राज सत्ता अव मीनमगांङ्क के हाथ में थी । सत्ता पाकर विवेक, धर्म, नीति और कर्तव्य का अनुसरण करना बड़ा कठिन है। सत्ता या प्रभुता मे एक प्रकार का जहर है। उस जहर को पचा लेना प्रत्येक का काम नहीं। पर जो उसे पचा लेते हैं. वे मानव-समाज मे आदरणीय हो जाते हैं । जो नहीं पचा पाते, उनकी दशा अत्यन्त दारुण होती है प्रभुता का वह विष दुराचार अत्याचार के रूप मे पट निकलता है। मीनमगांङ्क उस विष को पचा न सका । अतएव वह उसके कार्यों के द्वारा फट निकला। उसने अपने अत्याचारों द्वारा प्रजा मे त्राहि-त्राहि मचवा दी। अपने मनोरंजन के लिये वह सैकड़ों निरपराध प्राणियों का घात फरने लगा। अन्याय और अत्याचार मानो उसके नित्यकर्म