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पार्श्वनाथ
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सकता है । बड़े भाई का कर्त्तव्य छोटे भाइयों को पीड़ा पहुँचाना नहीं है किन्तु उन्हें सुख पहुँचाना, उनकी रक्षा करना है । जो मन्ष्य इस कर्त्तव्य का अन्तःकरण से पालन करता है, वह दूसरे प्राणियों का ही हित नही करता पर अपना भी हित करता है । हिंसा घोर पातक है । हिंसक मनुष्य अपनी आत्मा को पापमय वना कर दुःख का भागी होता है। हिंसा की आराधना करने से इस लोक और परलोक में सुख मिलता है । इसलिए अपने सुख के लिए भी हिंसा का त्याग करना चाहिए | देखो, जब तुम्हारे पैर मे छोटा सा कॉटा लग जाता है, तो तुम तिलमिला जाते हो | तब निरपराध दीन-हीन प्राणियों के शरीर में भाला घुसेड़ने पर उन्हें कितनी घोर वेदना होती होगी ? बेचारे पशु मनुष्य का बिगाड़ते भी क्या है ? वे न किसी प्रकार का संचय करते हैं, न परिग्रह जोड़ते है । उन्हें पेट भर खाना चाहिए । जंगल के घास-फूस से अपना निर्वाह कर लेते हैं । फिर भी मनुष्य उन्हें शान्ति से नही रहने देता, यह कितने शोक की बात
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? इसलिए मै कहता हूँ -- भाई शिखरसेन । हिंसा न करो । सुख से रहो, और दूसरो को भी सुख से रहने दो । भगवान् पार्श्वनाथ का यही उपदेश है ।'
मुनिराज इस प्रकार प्रतिबोध देकर, वहाँ से चल दिये । शिखरसेन दूर तक उन्हें पहुॅचाने आया और उसने तभी से हिंसा का त्याग कर णमोकर मंत्र का जाप करना आरम्भ कर दिया ।
एक बार शिखरसेन अपनी पत्नी के साथ, पहाड़ों मे बहने वाली नदी मे जल क्रीड़ा करने गया । अचानक वहां एक सिंह गया। उसने दोनो को अपने पंजों से आहत कर दिया । उस