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________________ २३८ पार्श्वनाथ थीं। कोई यह आशंका कर सकता है, कि जब भगवान् निरीह थे, तो धर्मोपदेश कैसे देते थे ? संसार मे बिना इच्छा के कोई भी कर्ता किसी भी कार्य मे प्रवृत्त नहीं होता। यह प्रश्न संगत है। और इसका समाधान इस प्रकार है। जैसे बजाने वाले के हस्त से स्पर्श से मृदग इच्छा-रहित होने पर भी ध्वनि करता है। उसी प्रकार अरिहंत भगवान इच्छा रहित होने पर भी तीर्थकर नामकर्म का उदय होने के कारण धर्मोपदेश करते है। दूसरा कारण भव्य जीवो के प्रबल पुण्य का उदय है । भव्य प्राणियों के प्रवल पुण्य-परिपाक से तीर्थकर भगवान् की दिव्यध्वनि खिरती है। अतएव इच्छा और ध्वनी मे अविनाभाव संबन्ध नहीं है। उस शब्द को बोलने की इच्छा न रहते हुए भी लोक मे अनेक । मनष्य अनेक शब्दों का उच्चारण कर देते है। इससे भी इच्छा और ध्वनि की व्याप्ति का खडन हो जाता है । अत. भगवान् सब प्रकार की इच्छाओं से रहित होकर के भी धर्मोपदेश मे प्रवृत्त होकर मानव-समाज का कल्याण करते थे। धर्मोपदेश करते हुए भगवान एक बार फिर वाराणसी नगरी मे पहुँचे । भगवान् केशुभागमन का संवाद तत्काल ही समस्त नगरी मे विद्युत्-गति से फैल गया। सहस्रों नर-नारी भगवान् के मुख-चन्द्र से भरने वाले लोकोत्तर सुधा का पान करने के लिए उमड़ पडे । भगवान् का उपदेश सुन कर सब ने अपने को कृतकृत्य समझा। सब ने भगवान् की भरि-भरि प्रशंसा करते हुए स्तुति की । उस समय बनारस मे एक सोमल नामक ब्राह्मण रहता था। उसे घोर मिथ्यात्व के उदय से भगवान् की प्रशंसा सह्य न हुई । चारो वेदो का ज्ञाता वह ब्राह्मण विद्वान अपनी विद्वत्ता के अभिमान मे डवा हुआ भगवान के पास आ पहुंचा।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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