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प्रतिबोध
विभाग होते हैं ।
चन्द्रदेव और सूर्यदेव की मृत्यु होने पर चन्द्र- पृथ्वी और सूर्य - पृथ्वी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । एक देव के मरने पर दूसरे देव की उत्पत्ति हो जाती है और पृथ्वियों की चाल पूर्ववत् जारी रहती है ।
चन्द्र और सूर्य की पृथ्वी के नीचे राहु और केतु की पृथ्वी आ जाने से चन्द्र-सूर्य-पृथ्वी दृष्टि के अगोचर हो जाती है । इसी को चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण कहते है । अनेक लोग ऐसा समझते हैं, कि ग्रहण के समय चन्द्र या सूर्य पर बड़ी भारी विपदा
पड़ती है । यह भ्रान्त धारणा है । जिस प्रकार अगस्तिक गाथापति चारित्र की विराधना कर चन्द्रदेव हुआ उसी प्रकार सूर्यदेव भी हुआ है ।
सावंथी नगरी की ही घटना है | तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ यत्र-तत्र सर्वत्र विहार करते हुए इस नगरी में पधारे । वहां आपने धर्म देशना दी । देशना समाप्त होने पर वहां के सुप्रतिष्ठित नामक गाथापति ने चारित्र धारण किया । चारित्र धारण करके उसने थोड़े ही दिनों मे, अंग शास्त्रों का अध्ययन कर लिया । वह भी अगस्तिक गाथापति की तरह अपनी भूल स्वीकार न करता था । अतएव उसने अपने संयम को विराधित कर लिया और वह सूर्य - विमान मे सूर्य देव के रूप में उत्पन्न हुआ ।
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भगवान् ने मोहनीय कर्म का समूल विनाश कर दिया था । मोहनीय कर्म का सर्वथा तय हो जाने से वे पूर्ण निष्काम हो गये । इच्छा. मोहनीय कर्म के उदय से होती है और मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर इच्छा का भी अभाव हो जाता है । अतएव भगवान् की इस समय की क्रियाऍ निष्काम भाव से होती