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पार्श्वनाथ कारणों के अनुसार परिवर्चित होती रहती है । प्रियजनों के वियोग की व्यथा का उपचार धर्म-श्रवण, संसार की अनित्यता, अशरणता और आत्मा के एक्त्व की भावना आदि से ही हो सकता है। जो घटना घट चुकी है उसके लिए खेद करके अशुभ कर्मों का नवीन बंध करना विवेकशीलता नहीं है। अतएव धर्म की विशिष्ट आराधना करके और संसार के स्वरूप का चिन्तन करके आत्मिक स्वास्थ्य प्राप्त करना चाहिए। इस प्रकार कमठ, मतभूति तथा अन्य पौर जनों के उपस्थित होने पर मुनिराज ने अपने मुख-चन्द्रमा से उपदेश-सुधा का प्रवाह वहाया । सब श्रोता एकाग्र मन से, चुपचाप, उत्कंठा पूर्वक उपदेश सुनने लगे। मुनिराज कहने लगे
धम्मो मंगलमुकि', अहिंसा संयमो तवो। देवा वि तं नमसंति, जस्स घस्मे सया मणो॥
-निम्रन्थ प्रवचन अहिंसा, संयम और तप उत्कृष्ट मंगल है । उत्कृष्ट मंगल वह है जिसमे अमॅगल का अणुमात्र भी अंश विद्यमान न हो और जिस मंगल के पश्चान् अमंगल का कदापि उद्भव न हो सके। संसार मे अनेक पदार्थ मंगल-रूप माने जाते हैं किन्तु उनका विश्लेषण करके देखा जाय तो उनके भीतर अमंगल की भीषण मुनि बैठी हुई प्रतीत होगी। इसके अतिरिक्त वह सांसारिक मंगलमय पदार्थ अल्प काल तक किंचित् सुख देकर बहुत काल तक बहुत दुःख देने के कारण परिणाम से अमंगल रूप ही सिद्ध होते हैं। मधुर भोजन, इच्छित भोगोपभोग, आज्ञापालक पुत्र, अनुकून पत्नी, निल्टक साम्राज्य और सब प्रकार की इष्ट सुख