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पहला जन्म
वे दिनोंदिन क्षीणशक्ति हो रहे थे। अतएव प्राचीन परिपाटी के अनसार उन्होंने गहस्थी का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व अपने सिर से उतार कर अपने पुत्रों के सिर रक्खा और आप सब झंझटों से अलहदा होकर निश्चिन्त चित्त से धर्म का प्रानाधन करने लगे। वास्तव मे पत्रों की यही सार्थकता है कि गहस्थी उन्हें सौप कर कम से कम जीवन के अन्त समय में विशेष रूप से धर्म की आराधना करने का अवसर मिल जाता है। पुरोहित विश्वभूति थोड़े समय बाद अनशन व्रत धारण कर के इस लोक से विदा हुए और अपने उपार्जित पुण्य के फलस्वरूप प्रथम देवलोक मे देव हुए । उनकी पत्नी अनधरा भी उसी स्वर्ग में उत्पन्न होकर पनः देवी के रूप से उनकी पत्नी हुई।
इधर कमठ अपने दुष्ट स्वभाव के साथ गहस्थी का कार्य संचालन __ करने लगा और परम्परागत पुरोहिताई भी करने लगा।
उस समय श्रीहरिश्चन्द्राचार्य, जो अनेक रमणीय गणों के धारक थे, अनेक ग्राम-नगर-आकर आदि मे जैनधर्म का उपदेश करते हुए भव्य जीवों के पुण्य-परिपाक से पोतनपर नगर मे पधारे । मुनिराज चार ज्ञान के धारी और धर्मप्रियजन रूपी चकोरो के लिये चन्द्रमा के समान थे। आपके आगमन का शुभ संवाद ज्यो ही नगर मे पहुंचा कि नगर निवासी नर-नारियो के समूह के समूह उनके कल्याणकर दर्शन और उपदेश श्रवण के लिए उमड़ पड़े। राजा भी अपने प्रतिष्ठित और उच्च पदाधिकारियो के साथ मुनिराज के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ। विश्वभूति के दोनों पुत्र कमठ और मरुभूति भी माता-पिता के वियोग की वह्नि को मुनिराज की प्रशान्त पीयपमयी वाणी के द्वारा शांत करने के लिए आये ! क्योकि मनुष्य के मन की वृत्ति बाघ