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निष्क्रमण
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मानों मुझे ललकार रहा है। एकान्तवाद या दुराग्रह रूपी निविड़ अंधकार बढ़ता चला जा रहा है इस अंधकार मे अगणित प्राणी विवेकान्ध होकर कुपथ की और बढ़ते चले जाते है। उन्हें अविलम्व ही सत्पथ बताने की आवश्यकता है। कृपा कर अम आप मुझे न रोके । शीघ्र दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दे । ममता की मूर्ति माता जी से भी मेरी यही प्रार्थना है ।"
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महाराज अश्वसेन और वामादेवी ने बहुत समझाया बुझाया पर अन्त में जब कुमार को अपने संकल्प पर सुदृढ़ पाया तब उन्होंने दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी । कुमार को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वर्षी दान देना आरंभ कर दिया । सनाथ, अनाथ दीन-हीन, जो भी कोई याचना करने आया। उसे प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख सुवर्ण- मुद्राऍ दान में देने लगे । इन्द्र ने कुवेर को पार्श्व कुमार का कोष भर देने की आज्ञा दी । कुमार प्रति दिन कोष भर देता और कुमार प्रति दिन दान कर देता । यह क्रम अविच्छिन्न रूप से एक वर्ष तक चलता रहा । इसी समय मे कुमार ने अपने संयम जीवन के लिए विशेष तैयारी कर ली । उन्होंने अपने जीवन को अत्यंत संयत निरुपाधिक और सादगी पूर्ण बना लिया ।
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निष्क्रमण
एक वर्ष व्यतीत होगया । दीक्षा महण करने का शुभ प्रसंग आ पहुँचा। महाराज अश्वसेन ने राजसी वैभव के अनुकूल दीक्षा- महोत्सव की तैयारी की । एक विशाल और सुन्दर शिविका सजाई गई । उसमें एक बहुमूल्य सिंहासन पर कुमार विराजमान हुए । चन्द्रमा के समान उज्वल रत्नजटित छत्र उनके मस्तक पर
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