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ફે
पाश्वनाथ
सुझ
से अब तक तुप्त न हुए होंगे। थोड़े दिन और ठहरने से यदि तृप्ति होने की सभावना होती तो मै अवश्य ठहरता और आप को संतुष्ट करके ही दीना ग्रहण करता । पर देखता हॅू संसार अतृप्ति का आगार हैं। मोह रूपी पिशाच कभी तृप्ति नहीं होने देता । अतएव मै आप से आज्ञा लेकर दीक्षा धारण करना चाहता हूँ |
महाराज अश्वसेन ने कहा- पुत्र ! मै जानता हॅू तुम्हारा जन्म ! साधारण प्राणियो की भाँति विषयभोगो में व्यतीत करने के लिए नही हुआ है। तुम्हार भीतर लोकोत्तर आलोक की याभा चनक रही है । तुम्हारे ऊपर विश्व कल्याण का गौरव पूर्ण महान् उत्तरदायित्व है । सारा संसार तुम्हारे पथ-प्रदर्शन की बाट जोह रहा है । पर माता-पिता के हृदय की कोमलता का थोड़ा विचार करो । तुम्हारे अभाव में हमारा सर्वस्व लट जायगा । हम दरिद्र हो जाएँगे | कैसे यह प्राण धैर्य धारण करेगे ? तुम्हारी यह स्नेहमयी माता कैसे जीवित रहेगी ? इसलिए मेर लाल थोड़ा समय और इसी प्रकार व्यतीत कर दो। फिर आनंद से दीना धारण करना ।
कुमार ने कहा - पिताजी । यदि मैं थोड़ा समय रह भी जाऊँ तो भी मोह कम न हो जायगा। अधिकाधिक संसर्ग से मोहममता की अधिक वृद्धि होती है । मेरे दीक्षित होने से आपका सर्वस्त्र न लुटेगा । आप अपनी इच्द्रास मुझे संसारके कल्याणके लिए अर्पित कर दीजिए । फिर मै जैसे संसार का हॅू वैसे ही आप का भी हॅू । ससार मे अन्याय और अधर्म की वृद्धि हो रही है । धर्म का ह्रास हो रहा है । मुझ से यह देखा नहीं जाता । भोतरसे मेरा आत्मा तड़प रहा है । दुखियों की आहे मेरे क्र- कुहरो से प्रवेश करके हृदय को छेद-सी रही है । हिंसा का दारुण नृत्य