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बारह भावना
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देवी-देवता को प्रसन्न करना चाहते हैं पर उन मूढ़ो को यह पता नहीं कि देवी देवता भी नत्य के शिकार ही है। मणि, मत्र, तंत्र, यंत्र, आदि कोई भी उपाय मत्य को क्षण भर भी नही टाल सकता। किसी मे सत्य को निवारण करने की शक्ति होती तो क्या स्वर्ग के सर्वोत्तम भोगो का त्याग करके सुरेन्द्र काल के वश मे होता? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का प्रगाढ़ श्रद्धापूर्वक शरण ग्रहण करो। संसार मे परिभ्रमण करने वाले प्राणियो के लिए अन्य कोई भी शरण नहीं है। इस प्रकार पुनः पुनः चिन्तन करना अशरण भावना है।
(३) एकत्व भावना जीव अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही गर्भ मे आकर देह प्राप्त करता है, अकेला ही बालक, युवक और वृद्ध होता है। इसके रोग को, शोक को, प्राधि-व्याधि को दूसरा कोई नहीं वटा सकता । जीव अकेला ही पुण्य का संचय करता है, अकेला ही वर्ग के सुख भोगता है, अकेला ही कर्म खपा कर मुक्ति पाता है। अकेले ही पाप का बंध करता है, अकेला ही नरक की घोरातिघोर यातनाएँ भुगतता है, अकेला ही मरण-शरण होता है । स्त्री पुत्र, मित्र वन्धुजन टुकुर-टुकुर देखा करते है पर दुख का लेशमात्र भी बांट नहीं सकते। यह सब जानता हुटा भी जीव मोह-ममता नहीं त्यागता : हे भव्यात्मन् ! अन्तर्मुख होकर जरा विचार कर लिजिन आत्मीय जनो के राग में अंबा होकर उनके गग-रंग और प्रसन्नता के हेतु तान्ह् पापम्धानकों का सेबन जाता है, क्या वे उन पापा राना उदय में काने पर नंग माटे मोतरी वन-दौलत के समान तर पाप-परचो में