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विवाह
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शिष्टाचार के अनन्तर प्रसेनजित बोले- कुमार ! कुशस्थल अभी अभी विपदाओं से घिरा हुआ था। भयंकर रण-चण्डी का चीत्कार मचने ही वाला था । न जाने कितनी सुहागिनो के सुहाग युद्ध-ज्वाला में भस्म हो जाते । कितनी विधवाएँ अपने पुत्रों के सहारे से वचित हो जाती। नगर का यह सौन्दर्य भीपण रूप धारण करता । जहा अभी नर-नारी आनन्द से घूम रहे है वहां गिद्ध और शृगाल चक्कर काटते होते । पर धन्य है आपकी कुशलता और धन्य है आपकी शूरवीरता को, कि आपका शुभागमन होते ही परिस्थिति सहसा पलट गई । हम राज परिवार के लोग और समस्त प्रजा किसी प्रकार आपके इस प्रसाद से मुक्त नही हो सकते । अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए हमारे पास कोई साधन नही है । सबसे अधिक मूल्यवान् और मेरे लिए सबसे अधिक प्रिय यह कन्या- रत्न ही मेरे पास है । इसे स्वीकार कर कृतार्थ कीजिए | इसके लिए आपसे अधिक सुयोग्य वर संसार में दूसरा नही मिल सकता ।
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पार्श्वकुमार ने कहा - महाराज मै अन्याय का प्रतीकार करने के उद्देश्य से तथा न्याय-नीति की रक्षा करने के लिए ही यहा आया हूँ । मेरे आने का इसके अतिरिक्त और कोई उद्देश्य नही है | आप आह करके व्यर्थ मुझे लज्जित न करें । मै विना माता-पिता की आज्ञा के इस सम्बन्ध मे कुछ कह या कर नही सकता । क्षमा चाहता हूँ- आपकी आज्ञा मै स्वीकार न कर
सका ।
प्रसेनजित ने कुमार की दृढ़ता देख अधिक आग्रह करना उचित न समझा । उन्होने पार्श्वकुमार के विनय-भाव की मन ही मन प्रशंसा की । सोचा- वन्य है वे माता-पिता, जिन्होने
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