________________
अनुवाद
४५ १४४ अवध (अहिंसा) शब्द ( का भाव) उत्पन्न करना
चाहिये और थोड़ा भी कोई अन्याय नहीं करना चाहिये । ये ( पाते) मन लगाकर अपने चित्त में लिख
लो और निश्चित पाँव पसार कर सोओ। १४५ बहुत अटपट पड़बड़ाने से क्या ? देह आत्मा नहीं है।
देह से भिन्न जो ज्ञानमय है, हे जोगी, वही आत्मा
जिसका मन ही अशुद्ध है उसे पोथा पढने से मोक्ष कहां? वध करने वाला लुब्धक (शिकारी) भी नीचे खड़ा होकर हरिण के सामने नमता है। (अर्थात् फल
क्रिया के ऊपर नहीं किन्तु भाव के ऊपर निर्भर है)। १४७ हे ज्ञानी जोगी! दया से विहीन धर्म किसी प्रकार नहीं
हो सकता। वहुतसा पानी विलोडने से हाथ चिकना नहीं हो सकता। जहां खलों का संग हुआ वहां भले पुरुषों के भी गुण नष्ट हो जाते हैं। लोहे से मिलकर अग्निदेव भी बड़े
बड़े घनों से पीटे जाते हैं। १४९ शंख की सफेदी का अशि में संस्कार न हुआ हो ऐसा
नहीं है । तो भी यदि वह खैर से मिल गया तो वदल जायगा। इसमें भ्रान्ति मत कर। (अर्थात् सुशिक्षित पुरुषों पर भी दुस्संगति का प्रभाव पड़े विना नहीं रहता)। शंख की समुग्दक (पेटिका ) में पड़ी मुक्ता की ऐसी अवस्था होती है कि वह धीवरों द्वारा गल हाथ में लेकर वाहर निकाली जाती है। [लिष्टार्थ यह भी है कि शंख के आकार वाले अंग के कारण वाराङ्गना की यह अवस्था होती है कि वह नग्न पुरुपों द्वारा गले में हाथ डाल कर चूंवी जाती है।]