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अनुवाद
१२६ सिद्धान्त
१२५ पट् दर्शन के ग्रंथ रूपी ग्रन्थि से बहुत से एक दूसरे पर
ग़रजते हैं। जो कारण है वह एक पर ही है, किन्तु लोग विपरीत समझते हैं। सिद्धान्त, पुराण और वेद जानने वालों के जव भ्रान्ति न रहे और जब उनका आनन्द से गमन हो जाय तव, हे
मूर्ख! वे सिद्ध कहलाते हैं। १२७ यह शिव और शक्ति का मेल पशु-वध में होता है।
शक्ति शिव से भिन्न है यह कोई विरला ही समझता है । १२८ जिसने अपनी देह से परमार्थ को भिन्न नही जाना वह
अंधा दूसरे अंधों को कैसे मार्ग दिखा सकता है ? १२९ हे जोगी! तूं अपने आत्मा का देह से भिन्न ध्यान कर।
यदि देह को भी आत्मा मानेगा तो निर्वाण नहीं पा सकता। बड़ा भारी छत्र पाकर भी सय काल में संताप पाता है। अपनी देह में वसने पर भी वाड़े में पापाण दुलवाता है। ( अर्थात् छत्रधारी नरेश होकर के भी, लोभ और मोह के वश, जीव दुखी होता है। आत्मा का वास तो देह में है पर रहने के लिये पापाणों के
महल बनवाता है, यह सव मोहजाल है)। १३१ सदैव मोटे और बड़े पशुओं को मतसंताप पहुंचा ।अपनी
देह में बसने पर भी सूनेमट में वसने जाता है। (अर्थात् पशुओं का बलिदान देने में कल्याण नहीं है और न सने मठी में रहने से । कल्याण आत्मानुभव में ही है)।