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अनुवाद
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७६ हे जोगी ! जिसके हृदय में जन्म-मरण से विवर्जित एक परम देव निवास करता है वह परलोक को प्राप्त करता है।
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जो पुराने कर्म को खपाता है और नये का प्रवेश नही होने देता, तथा जो परम निरंजन (देव) को नमस्कार करता है वह परमात्मा हो जाता है ।
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पाप का आत्मा में तभी तक परिणाम होता है और तभी तक कर्म-वंध होता है, जब तक, निर्मल होकर, परम निरंजन को नही जान लेता ।
दर्शन और ज्ञानमयी निरंजन देव परम आत्मा अन्य ही है। आत्मा ही सच्चा मोक्ष पथ है । हे मूढ ! ऐसा जान ।
(लोक) तभी तक कुतीर्थों का परिभ्रमण करते हैं और तभी तक धूर्तता भी करते हैं जब तक वे गुरु के प्रसाद से देह के देय को नही जान लेते ।
८१ तूं तभी तक लोभ से मोहित हुआ विषयों में सुख मानता है, जब तक कि, गुरु के प्रसाद से, अविचल बोध नही पाया ।
जिससे विशेष बोध (अर्थात् आत्मज्ञान) उत्पन्न न हो ऐसे त्रैलोक्य को प्रकट करने वाले ज्ञान से भी (जीव ) वहिनी ( वहिरात्मा) ही रहता है, जिसका कि परिणाम अशुभ है ।