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.अनुवाद आत्मा दर्शन और ज्ञानमय है, अन्य और सब प्रजाल है। ऐसा जानकर, हे योगियो ! मायाजाल को छोड़ो।
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जगतिलक आत्मा को छोड़कर जो परद्रव्य में रमण करते हैं, तो और क्या मिथ्या-दृष्टियों के माथे पर सींग होते हैं?
७१ जगतिलक आत्मा को छोड़कर, हे मूढ ! अन्य किसी
का ध्यान मत कर। जिसने मरकत (मणि) को पहचान .
लिया वह क्या कांच को कुछ गिनता है ? ७२ हे मूर्ख ! शुभ परिणामों से धर्म और अशुभ से अधर्म
होता है। इन दोनों से विवर्जित होकर जीव पुनर्जन्म
नहीं पाता। ७३ हे जोगी! कर्म स्वयं मिलते और स्वयं विछुड़ते हैं,
इसमें भ्रान्ति नही। चञ्चल स्वभाव के पथिकों से और क्या गांव वसते हैं! यदि तूं दुख से भयभीत है तो अन्य को जीव मत मान। तिल व तुपमात्र शल्य (कांटा) भी अवश्य वेदना करता है।
आत्मा की भावना करने से पाप एक क्षण में नष्ट हो जाता है। अकेला सूर्य एक निमेष में अंधकार के समूह का विनाश कर देता है।