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६३ हे जीव ! यदि तँ खाता पीता हुआ ही शाश्वत मोक्ष को पा जाय तो ऋषभ महाराज ने सफल इन्द्रिय-सुखों को क्यों त्यागा ?
६४ हे मूढ ! यह देहरूपी महिला तुझे तभी तक सताती है जब तक निरंजन (निष्कलंक ) मन पर (परमात्मा) के साथ समरस नहीं होता ।
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अनुवाद
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विषय-रुपायों में जाते हुए मन को जिसने निरंजन ( आत्मा ) में रोक लिया तो मोक्ष का कारण इतना ही है । और कोई तंत्र है न मंत्र ।
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जिसके मन में सव विकल्पों का हनन करने वाला शान विस्फुरायमान नही हुआ वह, सभी कुछ को धर्म कहता हुआ, नित्य सुख कैसे पा सकता है ?
सब चिन्ताओं को छोड़कर जिसके मन में परमात्मा का निवास हो गया वह फिर, आठ कर्मों का हनन करके, परमगति को पाता है ।
६७ गुणों के निलय आत्मा को छोड़ कर और ध्यान ध्याता हे | हे मुर्ख ! जो अज्ञान में मिश्रित ( लिप्त ) हैं उनके केवल शान कहां ?
दर्शन और केवल (ज्ञान) ही आत्मा है, और सब व्यवहार ( भाव ) है | जो त्रैलोक्य का सार है ऐसे इसी एक का, ऐ योगियो ! ध्यान करना चाहिये ।