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देशीभापा और अपवंश
जातिमापाश्रयं पाव्यं द्विविधं समुदाहृतम् । प्राकृतं संस्कृतं चैव चातुर्वर्ण्यसमाश्रयम् ॥ ३० ॥
सौरसेनं समाश्रित्य भापा कार्या तु नाटके । अथवा छन्दतः कार्या देशमापा प्रयोक्तृभिः ॥ १६ ॥ मागध्यावन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी । वाल्हीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ॥ ४७ ॥ शवरामीरचाण्डालसचरद्रविडोद्रजाः । हीना वनेचराणां च विभापा नाटके स्मृता ॥ ४९ ॥
-अध्याय १५. यद्यपि इस अध्याय में दिए हुए भापा सम्बन्धी भेद और प्रभेद कुछ भ्रमोत्पादक है, किन्तु मेरी समझ में भरतमुनि का मत यह है कि संस्कृत के अतिरिक्त दो प्रकार की भाषायें हैं, एक प्राकृत जिसमें संस्कृत के विकृत शब्द प्रयोग में अति हैं और इसलिये जिन्हें वे 'विभ्रष्ट' कहते हैं, और दूसरी देशी जिसमें संस्कृत प्राकृत के शब्द भी हैं तथा कुछ म्लच्छ (अनार्य अर्थात् असंस्कृत ) शब्द भी हैं। मुख्य देशी भापायें (भाषा ) मागधी, आवन्ती आदि सात हैं और गौड देशी भापायें ( विमापा ) शबर, आमीर, चाण्डालादि की अनेक हैं । स्मरण रखना चाहिये कि आमीरों की मापा यहां एक देशी भाषा मानी गई है।