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पाहुड - दोहा
में वे आगन्तुक से ज्ञात होते हैं। जैसा हम ऊपर कह आये हैं, परमात्मप्रकाश, योगसार और प्रस्तुत ग्रंथ के प्रसंग और शैली में इतनी समानता है कि उन पर पूर्वोक्त कसौटी भी कुछ नही चलती । हां, योगीन्द्र का नाम बहुत समय से प्रसिद्ध और सुप्रतिष्ठित रहा है, उनके ग्रंथों पर संस्कृत हिन्दी टीकायें भी लिखी गई हैं, तथा अन्य अनेक टीकाकारों ने उनका उल्लेख किया है, इससे यही अनुमान करने को जी चाहता है कि उन्ही के ग्रंथों से प्रस्तुत ग्रंथ में दोहे लिये गये हैं । पर यह विषय शंकास्पद ही है । यदि इस सम्बन्ध में कोई बात निश्चयतः कही भी जावे तो उससे प्रस्तुत ग्रंथ के रचना काल के सम्बन्ध में कुछ नही कहा जा सकता, क्योंकि अभी तक योगीन्द्रदेव के समय का भी निर्णय नही हुआ है । किन्तु सावयवम्म और प्रस्तुत ग्रंथ में जो दोहे मिलते हैं उनके सम्बन्ध में पूर्वोक्त कसौटी काम में लाई जा सकती है।
प्रथम, दोहा नं. ४३ को लीजिये । इसमें पांच इंद्रियों के संयप का और विशेषतः दो अर्थात् जिहा और परखी-कामना के नियंत्रण का उपदेश दिया गया है। पांच इन्द्रियों का प्रसंग ऊपर से तो नहीं आया किन्तु नीचे के दोहों में पाया जाता है । पर जीभ और पराई नार के निवारण का उपदेश तो यहाँ चिलकुल अप्रासंगिक है । प्रथम तो जब यह कह दिया कि जिस बुद्धिमान् का मन अक्षयिनी