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टिप्पणी.
१२.३ पंक्ति का कुछ स्पष्ट अर्थ समझ में नहीं आता । यही दोहा हेमचन्द्र ने अपनी प्राकृत व्याकरण के ४ थे पाद.के ३९६. सूत्र. के. उदाहरण में इस प्रकार उद्धृत किया है
जइ केवह पावीसु पिउ अकिआ कुड करीसु.। पाणिउ णवह सरावि जिव सव्वंगे पइसी॥
इसका अर्थ है-यदि किसी प्रकार मैं अपने प्रिय को पा जाऊँ तो अपूर्व कौतुक करूँ। नये सकोरे (मिट्टी.के प्याले में रक्खे हुए पानी के सदृश मैं उसके सत्रांग में प्रवेश कर जाऊं । (या मैं उसमें सर्वात प्रवेश कर जाऊं)। यह भाव परमात्मध्यान के सम्बन्ध में भी अच्छी तरह योजित किया जा सकता है। सम्भवतः हमारे ग्रंथ के दोहे का भी यही शुद्ध रूप है। लिपिकारों के उसका अर्थ न समझने के कारण उसका पाठ भ्रष्ट हो गया है।
१८१. अर्थात् मनुष्य अपने दायें वायें जो इन्द्रियों के विषय हैं उनमें तो चित्त देता है किन्तु अपने ही बीच में जो परमात्मा निवास करता है उसकी ओर ध्यान नहीं देता। योगी वही है जो उस ओर ध्यान दे । योगशास्त्र में वाम और दक्षिण इडा पिंगला नाडियों के अर्थ में भी आते हैं ।
१४२. यह दोहा मृत्यु अवस्था या निर्विकल्पक समाधि अर्थात् रूपातीत ध्यान के सम्बन्ध में योजित किया जा सकता है। उक्त दोनों अवस्थाओं में आत्मा शान्त भाव में लीन हो जाता है