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टिप्पणी
११७ मणकरहु जु बंधिवि घरि धरइ तवचिल्लडी चरावद। परियाणिवि कालहो तणिय गइ संजमभंड भरावइ ।
इस पथ में 'तबविल्लडी चरावइ ' का जो भाव है उस पर से प्रस्तुत दोहे की प्रथम पंक्ति का संस्कृत रूप हमें इस प्रकार ऊँचा- 'करम चर जिनगुणरथल्यां तपोवल्ली प्रकामम् ' जिसका अनुवाद है ' हे करम ! जिनगुण रूपी रथली में तप रूपी वेल को यथेच्छ चर' । 'चर' का अर्थ ' खाना' और ' आचरण. करना ' दोनों हैं । यह अर्थ अधिक अच्छा है।
११३. 'मियमडा' का अर्थ समझ में नहीं आया। प्रसङ्ग से जान पड़ता है कि यह ऊँट की सजावट में उपयोगी किसी वस्तु का नाम है
११४ ' अहुवियद्दह' से ' अटव्याः अटवीम् । अर्थ लिया गया है । यह कहां तक ठीक है यह मैं विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता।
११५ अनुवाद में पत्र ' की जगह ' बाट ' ( मार्ग) होना चाहिये । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मार्ग से बहुत दूर जो वृक्ष है उससे पथिकों को कोई लाभ नहीं, इसी प्रकार सन्मार्ग से जो व्यक्ति च्युत है उसके धन वैभव से जीवों का कोई उपकार नहीं हो सकता।
११६, हिन्दू धर्म के पट दर्शनों के नाम ये हैं- सांख्य,