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टिप्पणी
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कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥६॥ यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कमेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥
[अध्याय ३.] ११. इस दोहे की दूसरी पंक्ति परमात्मप्रकाश २५४ में इस प्रकार है
तो वरि चिंतहि तउ जि तउ पावहि मोक्खु महंतु। .
इसका हिन्दी अनुवाद किया गया है ' इस कारण तप की चिन्ता कर जिससे महान् मोक्ष की प्राप्ति हो।
१९. यह गाथा 'उक्तं च ' रूप से श्रुतसागर ने भावप्राभूत की १०८ वी गाथा की टीका में उद्धृत की है।
२१. पांच महाव्रत ( अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य व परिग्रह ), पांच समिति (ईफ, भापा, एपणा, आदान-निक्षेपण व प्रतिष्ठापना ), पंचेन्द्रिय-निग्रह, छह आवश्यक ( सामायिक स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्यारव्यान व कायोत्सर्ग ), और सात अन्य गुण ( केशलौंच, अचेलत्र, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन व एकभक्त ), ये अट्ठाइस साधनायें जैन मुनियों के मूलगुण कहलाते हैं । इनका विवरण स्वामी बहकेर कृत मूलाचार के प्रथम अध्याय में देखिये ।