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२१० भव भव में मलरहित सम्यग्दर्शन होवे, भव भव में समाधि करूँ और भव भव में मन में उत्पन्न होनेवाली व्याधि का निहनन करने वाला ऋपि मेरा गुरु होवे ।
अनुवाद
२११ हे जीव ! एकाग्र मन से वारह अनुप्रेक्षा की भावना कर जिससे शिवपुरी प्राप्त होवे । रामसिंह मुनि ऐसा कहते हैं ।
२१२ शून्य शून्य नहीं है । त्रिभुवन में शून्य शून्य दिखाई देता है । शून्य स्वभाव में गत आत्मा पाप और पुण्य का अपहार कर देता है ।
२१३ दो रास्तों से जाना नही होता । दो मुख की सूजी से कथरी नहीं सीई जाती। हे अजान ! दोनो वातें नही हो सकतीं, इन्द्रिय सुख भी और मोक्ष भी ।
२९४ उपवास से प्रदीपन होता है, देह को संताप पहुंचता है और इंद्रियों का घर दग्ध होता है। मोक्ष का कारण यही है ।
२१५ उनके घर का भोजन रहने दो जहां सिद्ध का अपहरण हो । उनके साथ जय ( जय जिनेन्द्र ) करने से भी सम्यक्त्व मैला होता है ।
२१६ हे जोगी ! पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए यदि माणिक्य मिल गया तो उसे अपने कपड़े में बांध लेना चाहिये और एकान्त में देखना चाहिये ।