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[ नेमिनाथमहाकाव्य जिस प्रकार गुणभद्र ने उसका प्रतिपादन किया है, उससे नेमिप्रभु का विवाह
और प्रव्रज्या श्रीकृष्ण के कपटपूर्ण षड्यन्त्र के परिणाम प्रतीत होते हैं । माधव नेमि से अपना राज्य सुरक्षित रखने के लिये पहले विवाह द्वारा उनका तेज जर्जर करने का प्रयत्ल करते हैं और फिर वन्य पशुओ के हृदयद्रावक चीत्कार से उनके वैराग्य को उभार कर उन्हें ससार से विरक्त कर देते हैं (७१३१४३-१४४,१५३-१६८) ।
नेमिप्रभु के चरित के आधार पर जन-सस्कृत-साहित्य मे दो महाकाव्यो की रचना हुई है । कीतिराज के प्रस्तुत काव्य के अतिरिक्त वाग्भट का नेमिनिर्वाण (१२ वी शताब्दी ई०) इस विपय पर आधारित एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृति है । दोनो काव्यो मे प्रमुख घटनाएं समान है, किन्तु उनके अलकरण तथा प्रस्तुतीकरण मे बहुत अन्तर है । वाग्भट ने कथावस्तु के स्वरूप और पल्लवन मे बहुवा हरिवशपुराण का अनुगमन किया है । हरिवशपुराण के समान यहां भी जिन-जन्म से पूर्व समुद्रविजय के भवन में रत्नो की वृष्टि होती है, शिवा के गर्भ मे जयन्त का अवतरण होता है और वह परम्परागत स्वप्न देखती है । दोनो मे स्वप्नो की सख्या (१६) तथा क्रम समान हैं । नेमिनिर्वाण मे वणित शिशु नेमि के जन्माभिषेक के लिये देवताओ का आगमन, नेमिप्रभु की पूर्वभवावलि, तपश्चर्या, केवलज्ञानप्राप्ति, धर्मोपदेश तथा निर्वाणप्रासि आदि घटनाएं भी जिनसेन के विवरण पर आधारित है। किन्तु नेमिचरित का एक प्रसग ऐसा है, जिसमे वाग्भट तथा कीत्तिराज दोनो ने परम्परागत कयारूप मे नयी उद्भावना की है । पौराणिक स्रोतो के अनुसार श्रीकष्ण यह जान कर कि मेरी पत्नियो के साथ जलविहार करते समय नेमिकूमार के हृदय में काम का प्रथम अंकुर फूट चुका है, उनका सम्बन्ध भोजसुता राजीमती से निश्चित कर देते है । किन्तु नेमि भावी हिंमा मे द्रवित होकर विवाह को घर में छोड़ देते हैं और परमार्थमिद्धि की साधना मे लीन हो जाते हैं (हरिवशपुराण ५५७१-७२,८४-१००, उत्तरपुराण ७१।१४३-१७०)। नेमिनाथ वीतराग होकर भी अपनी मातृतुल्य भाभी पर अनुरक्त हो, यह क्षुद्र आचरण उनके लिये असम्भाव्य है । इस विसगति को दूर करने के लिये वाग्भट