________________
नेमिनाथमहाकाव्य ]
[ १७
यहाँ नायक की नायिका-विषयक रति स्थायीभाव है | नवकामिनी आलम्बन विभाव हैं । कामदुन्दुभि-तुल्य मेघगर्जना उद्दीपन विभाव है । रणजेता नायक का मानभजन के निमित्त नायिका के चरणो मे गिरना अनुभाव है । मद, औत्सुक्य, आदि व्यभिचारी भाव हैं । इन भावो, विभावो तथा अनुभावो मे पुष्ट होकर नायक का स्थायी भाव शृंगार के रूप मे निष्पन्न हुआ है ।
निम्नोक्त पद्य में भी शृङ्गार रम की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है । उपवन के मादक वातावरण मे कामाकुल नायिका नए छैल पर रीझ गयी हो, इमे आश्चर्य क्या
तो
?
ま
उपवने पवनेरितपादपे बत रतुमना परा । सकरुणा करुणावचये प्रियं प्रियतमा यतमानमवारयत् ||८|२२
नवतर
नेमिनाथमहाकाव्य मे शृङ्गार के पश्चात् करुण रस का स्थान है |
अप्रत्याशित प्रत्याख्यान से शोकतप्त राजीमती के विलाप मे करुण रस की सृष्टि
हुई है | कुमारसम्भव के रतिविलाप की भाति यद्यपि इसमे उपालम्भ तथा
क्रन्दन अधिक है तथापि यह हृदय की गहराई को छूने में समर्थ है |
अथ भोजनरेन्द्रपुत्रिका प्रविमुक्ता प्रभुणा तपस्विनी । व्यलपद् गलदश्रुलोचना शिथिलांगा लुठिता महीतले ।। ११११ मधि कोय मघोश ! निष्ठुरो व्यवसायस्तव विश्ववत्सल । विरहय्य निजा. स्वर्धामणीनंहि तिष्ठन्ति विहगमा अपि ।।११।२ अपरावनृते विहाय मा यदि तामाद्रियसे व्रतस्त्रियम् । चहुभि पुरुष पुरा घृता नहि तन्नाथ । कुलोचितं तव ॥ १११४
रौद्र रस का परिपाक पाँचवे सर्ग मे, इन्द्र के क्रोध के वर्णन मे, हुआ है । सहसा सिंहासन हिलने से देवराजः क्रोधोन्मत्त हो जाता है । उसकी कोपजन्य चेष्टाओ मे रौद्ररस के अनुभावो की भव्य अभिव्यक्ति हुई है । क्रोध से