SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ नेमिनाथमहाकाव्य इसका चित्रण सूर्य पर नायक और भ्रमरो पर परपुरुप का आरोप करके किया है । अपनी प्रेयसी को परपुरुषो से चुम्बित देखकर मूर्य (पति) क्रोध से लाल हो गया है और कठोर पादप्रहार से उम व्यभिचारिणी को दण्डित कर रहा है । यत्र भ्रमभ्रमरचुम्विताननामवेक्ष्य कोपाविव मूनि पद्मिनीम् । स्वप्रेयसी लोहितमूतिमावहन कठोरपावनिजघान तापन. ॥ २॥४२ निम्नलिखित पद्य मे लताओ को प्रगल्भा नायिकाओ के रूप मे चियित किया गया है, जो पुष्पवती होती हुई भी तरुणो के माथ वाह्य रति मे लीन हैं । कोमलाग्यो लताकान्ता प्रवत्ता यस्य कानने । ' पुष्पवत्योऽप्यहो चित्रं तरुणालिगनं व्यधु ॥१३॥१ काव्य मे कतिपय स्थलो पर प्रकृति का आदर्श रूप चित्रित है। ऐसे प्रसगो मे प्रकृति अपने स्वाभाविक गुण छोडकर निराला आचरण करती है । जिन-जन्म के अवसर पर प्रकृति का यही रूप परिलक्षित होता है । सपदि दर्शदिशोऽत्रामेयनमल्यमापु समजनि च समस्ते जीवलोके प्रकाश । अपि ववुरनुकूला वायवो रेणुवर्ज विलयमगमदापद् दोस्थ्यदु ख पृथिव्याम् ॥ १३६ प्रकृति-चित्रग मे कोतिराज ने परिगणनात्मक शैली को भी अपनाया है । प्रस्तुत पद्य मे विभिन्न वृक्षो के नामो की गणना मात्र कर दी गयी है । सहकार एप खदिरोऽयमर्जुनोऽयमिमी पलाशबकुलो सहोदगतौ । कुट जावम् सरल एष चम्पको मदिराक्षि शैलविपिने गवेष्यताम् ॥ १२॥१३
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy