________________
१४० ] एकादश सगं [ नेमिनाथमहाकाव्यम् होती है जैसे कदम्ब वृक्षो पर नयी कोपलो और फूलो की बहार वादल के । छिड़काव (वर्पा) से माती है ॥१८॥
स्वजनो द्वारा इस प्रकार ममझाने पर वह विदुषी शोक को छोडकर धर्माचरण मे तत्पर हो गयी। विद्वानो को समझाना मासान है ॥१६॥
उघर राग और रोष से रहित, चन्द्रमा के समान सौम्य कान्ति वाले तथा सुमेर की भांति पर्यशाली जिन परब्रह्म के चिन्तन में लीन हो । गये ॥२०॥
___ करुणारस के सागर, परायी वस्तु को ग्रहण करने से विमुख, हित एव सत्यवादी तथा शीलसम्पन्न मुनिराज मिट्टी और सोने को एक समान मानने लगे ॥२१॥
प्रभु रूपी मस्त हाथी अत्यन्त कठोर तप रूपी सूण्ड के वल से गहन फर्म रूपी वृक्षावली को उखाडता हुआ पर्वतो, वनो आदि मे आनन्दपूर्वक घूमने लगा ॥२२॥
वहाँ जिनेश्वर ने उपसर्ग, परीषह रूपी शत्रुओ की परवाह न करके मतीव दुस्सह तप करना आरम्भ किया । सचमुच तपस्या के बिना आत्मा की शुद्धि नहीं होती ।।२३।।
तदनन्तर चारित्र रूपी राजा के सैनिको द्वारा अत्यन्त पीडित विषयो ने अपने स्वामी मोहराज के सामने उच्च स्वर में इस प्रकार पूत्कार किया ॥२४॥
हे स्वामी । चरित्रराज के सैनिक जिनेश्वर नेमि के मन रूपी महानगर पर जवरदस्ती कब्जा करके काम के साथ हमे भी सता रहे हैं ॥२४॥
उसके मद, मिथ्यात्व आदि प्रमुख सैनिको ने इन्द्रियो के समूचे गण को अपने काबू में कर लिया है, रति का अनेक वार उपहास किया है और नगर के अधिष्ठाता देव की पूजा की है ॥२६॥