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नेमिनाथमहाकाव्यम् ]
षष्ठ सर्ग
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हे देव । यदि आक का दूध गाय के पवित्र दूध की तथा विष अमृत की समानता प्राप्त करे, हे त्रिलोकी के दीपक | तब दूसरा कोई देवता आपकी बराबरी कर सकता है ॥३५॥
, हे नाथ | अन्य मतो के अनुयायी भी आपको ही आप्त मानते हैं, यद्यपि वे आपको भिन्न-भिन्न नाम देते हैं । हे चिदात्मरूप । पृथ्वी पर वीतराग मिद्ध ही आप्त होता है, और वह आप ही है ॥३६।।
स्वामिन् | तुम्हारे जिस ज्ञान के सागर मे ये तीनो लोक मछली के समान प्रतीत होते हैं, हे परमात्मा रूपी वैद्य । तुम्हारे उस गुण को सदा नमस्कार ॥३७॥
भगवन् ! आपकी वाणी प्राणियो के लिये जितनी हितकारी है, उतनी अन्य किसी की नही । अपनी माता पुत्र से जितना प्रेम करती है, उतना विमाता नही, भले ही वह सौम्य हो ॥३८॥
हे जिन रूपी चन्द्रमा ! देवो तथा असुरो द्वारा पूजनीय आपके चरण रूपी इस पवित्र चिन्तामणि के दशन कुछ पुण्यात्माओ को ही होते हैं ।।३६॥
। भगवन् ! आज, आपके मुख के दर्शन से मेरे कर्मों का जाल नष्ट हो गया है, मेरा भाग्य जाग उठा है और मैंने 'सिद्धि रूपी वधू को वश में कर लिया है ।।४०॥
. हे तीर्थकर | 'सदा आपके सौम्य मुख को, जिसकी काति कभी क्षीण 'नही होती, देखते हुए हमे प्रतीत होता है कि यह ( आकाश का ) चन्द्रमा निश्चय ही अत्रि की आंख की मैल है ॥४१॥
भगवन् ! आपका यह तेजस्वी मुख रूपी दर्पण बहुत अद्भुत प्रतीत होता है, जिसमे दूसरो के मुख कभी प्रतिविम्बित नही हुए ॥४२॥
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