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नेमिनाथमहाकाव्यम् ]
चतुर्थं सगं
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तत्पश्चात् देवियां शिवा को पुत्र सहित उत्तर दिशा के भवन मे ले गयी जैसे सद्गुरु के वचन धर्मशास्त्र से युक्त (पुष्ट ) वुद्धि को शिष्य के मानस
मे ले जाते हैं ||४८||
फिर उन्होंने उन दोनो की रक्षा के लिये, देवता रूपी सैनिकों द्वारा क्षुद्र हिमालय से लायी गई चन्दन की लकडियो को आग मे जलाकर राख की पोटली बनाई ॥४६॥
तालवृक्ष के समान विशाल तथा चन्द्रमा के सदृश निर्मल पत्थर के दो गोलो को आपस में रगडते हुए कुमारियो ने प्रभु के कान मे कहा कि आप पर्वत की भाँति चिरायु होंगे ॥५०॥
तीनो लोको की रक्षा मे तत्पर तथा तीनो लोको का कल्याण करने वाले प्रभु का जो मालिक आशीर्वचन तथा रक्षावन्वन था, वह उनकी (दिक्कन्याओ की ) स्वामिभक्ति का क्रम ही था ॥ ५१ ॥
काफूर, कालागुरु तथा धूप से घुर्मैले और अत्यधिक सुशोभित शय्या से युक्त सूतिकागृह में जिनेन्द्र तथा माता को लेटा कर वे इस प्रकार प्रभु गुण गाने लगीं ॥५२॥
समस्त पवित्र सतियो की शिरोमणि माता शिवा, पन्ने और नीलमणि के समान शरीर को कान्ति से सम्पन्न श्रेष्ठ पुत्र के साथ ऐसे शोभित हुई जैसे वमन्त से सजी पुष्पवाटिका, सत्यज्ञान से युक्त क्रिया, निर्मल विवेक के माथ लक्ष्मी, सूर्य से युक्त पूर्व दिशा, नीलमणि से जढी अगूठी, नये मेघ से शोभित आकाश, भौरे से युक्त स्वर्णकेतकी और स्निग्व काजल से अजी आँख शोभा देती है ।।५३-५५॥
भक्ति से परिपूर्ण वे छप्पन दिक्कुमारियां तीर्थंकर का सूतिकर्म भली प्रकार करके, अपने को धन्य समझती हुईं, अपने-अपने स्थान को चली गयी ॥५६॥