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नेमिनाथमहाकाव्यम् ]
तत्पश्चात् उन्होंने पूर्व लेकर भगवान् के विपुल तथा
किया ||३०||
चतुर्थ सर्ग
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दिशा मे बैठकर तथा हाथो मे मनोहर दर्पण निर्मल यश का एक साथ प्रसन्नता पूर्वक गात
तव कुछ समय वाद कमल के कोमल कोश के सहण घने स्तनो से शोभित आठ कुमारियां रुचक पर्वत की दक्षिण दिशा से वहां आई ॥३१ ॥
मधुर रस मे लीन वे जिनेश्वर को नमस्कार करके दक्षिण दिशा मे बैठ गयीं और हाथो मे कमल रूपी स्वर्ण लेकर उन्होने प्रभु के समूचे शुभ्र ( निष्कलक) यश का गान किया ||३२||
रस्सी मे वधी मृगियो के समान प्रभु के पुण्यो से आकर्षित हुई आठ कन्याएँ रुचक पर्वत के पश्चिम से आकर तुरन्त सूतिगृह मे अवतीर्ण हुई ||३३||
चचल कानो वाली दिशाओ की हथिनियो के समान अपने करकमलो से पखे हिलाती हुईं वे कुमारियाँ अपना परिचय देकर तथा प्रभु को नमस्कार करके पश्चिम दिशा मे बैठ गयी ||३४||
हाथो मे चवर लिए हुए जो प्रसन्न दिक्कुमारियां रुचक पर्वत के उत्तर मे आई थी वे उत्तर दिशा मे बैठ गयी, मानो वे शरीरधारी आठ सिद्धियाँ हो ||३५|
जो चार सुन्दरॉगी कुमारियां रुचक के दिशाकोणो से आई थी, उन्होने भी, हर्पाविक्य से दूनी होकर, जिनेन्द्र और शिवा की वन्दना की || ३६॥
दिशाकोणो मे स्थित वे हाथों मे दीप लेकर गीत गाती हुई ऐसे शोभित हुई मानो चारो दिशाकोण ही उनका रूप धारण करके जिनेन्द्र की उपासना करने के लिये आए हों ||३७||
इसी प्रकार रुचक पर्वत के मध्य रहने वाली जो चार चतुर कुमारियां आयी थी, उन्होंने आदर पूर्वक जिनेश्वर की माना को अपना परिचय देकर प्रभु का नाल काटा ||३६||