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________________ प्रथम सर्ग मैं प्रभु नेमिनाथ के उन शोभा-सम्पन्न चरणो को नमस्कार करता हूं, जिनकी देवताओ के अधिपति (इन्द्र) इस प्रकार सेवा करते थे, जैसे भोरे कमल का सेवन करते हैं ।१। दुराग्रहो से मुक्त तथा सदा ज्ञानादि समस्त कलाओ से युक्त मुरुदेव, नवीन चन्द्रमा के समान ममार मे चिरकाल तक विजयी रहे ।२। जो मुनिराज नाना प्रकार के आलिंगन तथा आनन्द देने मे चतुर नारी को छोडकर वैसी (अर्थात् विविध श्लेषालकारो और रसो से समृद्ध) वाणी बोलते हैं, वे पूजनीय क्यो नही १३॥ उम सज्जन रूपी चन्द्रमा को नमस्कार, जो निर्मल होता हुआ भी स्वय को दोपो की खान कहता है किन्तु (गुणो से) समार को पवित्र वनाता है । (चन्द्रमा दोपाकर-निणाकर होकर भी अपनी कान्ति से जगत् को प्रकाशित करता है )।४। सुख चाहने वाले बुद्धिमान् लोग, सारहीन, पशुओ के भोजन के लिए उपयुक्त तथा तलरहित बल के समान निस्सार, पशुतुल्य तथा नीरस दुष्ट को दूर से ही छोड देते हैं । ग्रन्थ के आरम्भ मे सनन और असजन दोनो को नमस्कार करना चाहिये क्योकि इन दोनो के मिलने से ही गुणो और दोपो का विवेचन होता है ।६। कहाँ नेमिप्रभु की स्तुति और कहां मेरी यह कुण्ठित बुद्धि ? मैं अज्ञानवश तर्जनी से पर्वत उखाडना चाहता हूँ ७१ किन्तु गुरु की कृपा से मन्दबुद्धि भी बुद्धिमान् बन जाता है। सिखाने पर तोता, पक्षी होता हुआ भी, मनुष्य की भाषा मे बोलने लगता है ।। ___ अथवा प्रभु की भक्ति ही मुझ जडबुद्धि को बरबम मुखर बना रही है, जैसे बादल को गर्जना सुनकर मोर कूकने लगता है ।।
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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