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________________ ( १३ । देवता ने आपको श्रीजिनवर्द्धन रिजी की आयु ११ वर्प ही शेष होने का सकेत कर दिया था। आप चार चातुर्मास महेवा मे करने के पश्चात् श्री जिन भद्रमूरि के पास गए और स० १४८० मे वैशाख सुदि १० के दिन सूरिजी ने कीतिराज गणि को उपाध्याय पद से विभूपित किया। ___ उपाध्याय पदासीन होकर आपने बडी भारी शासन सेवा की। नेमिनाथ महाकाव्य भी इसी अरसे में निर्माण किया था और भी कई रचनाए की होगी, जिनमे कतिपय स्तवन आदि कृतियां उपलब्ध हैं। उनके वरद हस्त से अनेक सङ्घपति वने, सङ्घ निकाले । अनेक भव्य जीवो को धर्म का प्रतिबोध दिया और नये श्रावक बनाये। उनके भ्राता शाह लक्खा और वेल्हा ने महेवा से जैसलमेर आकर गच्छनायक श्रीजिनभद्र मूरि जी को, आमन्त्रित कर बडे भारी महोत्सव करने मे प्रचुर द्रव्य व्यय किया । सूरिजी के कर-कमलो से कीतिराजोपाध्याय को आचार्य-पदारूढ करवाया । इनका श्री कीतिरत्नसूरि नाम रखा गया। इन भ्राताओ ने स० १५१४ मे शखेश्वर,गिरनार, गोडी पार्श्वनाथ, बाबू और शत्रुञ्जयादि तीर्थो की यात्रा आचार्यश्री के साथ की एव सारे सघ मे सर्वत्र लाहण की एव आचार्यश्री का चातुर्मास बडे ठाठ से कराया । श्री कीतिरत्नसूरि जी के ५१ शिष्य थे । श्रीलावण्यशीलोपाध्याय (मेठिया गोत्रीय) एव हर्षविशाल, वा० शातिरत्नगणि, वा० क्षान्ति रत्न गगि वा० धर्मवीरगणि आदि मुख्य शिष्य थे। श्री क्षान्तिरत्न गणि आगे चलकर आपके पट्टवर श्री गुणरत्नसूरि हुए । आचार्य प्रवर श्री जिनमद्र सूरि के स्वर्गवामी होने के अनन्तर श्री कीतिरत्नसूरिजी ने उनके पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि जी को मूरिमन्त्र देकर गच्छनायक पदारूढ किया। स० १५२५ में आपने ज्ञान-बल से अपना आयु-शेष २५ दिन पूर्व ही - जान लिया और १५ दिन के उपवास की सलेखना करके सोलहवें दिन सद्ध के समक्ष अनशन आराधना पूर्वक समस्त मच व साधु-साध्वियो से क्षमतक्षामणा करते हुए मिनी वैशाख वदि ५ के दिन स्वर्गवासी हुए। जिस वीरमपुर मे आपका जन्म हुआ था, उसी नगरी मे आपका स्वर्गवास भी हुआ।
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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